लोगों की राय

बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।

उत्तर -

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी भावचित्री और कारचित्री प्रतिभा से सम्पन्न कलाकार थे। एक ही व्यक्ति में इन दोनों प्रतिभावों के दर्शन विरल होते हैं, या तो कोई व्यक्ति शास्त्रों का ज्ञाता होता है, या फिर साहित्य का रचयिता। किन्तु दोनों गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान होते हैं, वहीं श्रेष्ठ साहित्यकार माना जाता है। सौभाग्य से डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को ये दोनों प्राप्त हुए। आधुनिक हिन्दी साहित्य में इस दृष्टि से उनके समकक्ष केवल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आते हैं। वे भी सिद्धांतों के नियामक और साहित्य सृष्टा दोनों थे। यही विशेषता द्विवेदी जी में रही। 'साहित्य का साथी' तथा 'साहित्य का मर्म' यदि उनकी आलोचना-पद्धति के निदर्शक बने तो 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'चारूचन्द लेख', 'पुनर्नवा', 'अशोक के फूल', 'कुटज' आदि ग्रन्थ उनके श्रेष्ठ रचनाकार होने के प्रमाण हैं।

आचार्य शुक्ल जी ने अपनी प्रतिभा, चिन्तन और पांडित्य द्वारा हिन्दी-आलोचना के जिस भव्य पथ का निर्माण किया था, उसे और अधिक प्रशस्त बनाने का कार्य द्विवेदी जी ने किया। उनके सिद्धांत और मान्यताएँ शुक्ल जी के विरुद्ध नहीं थीं, अपितु उन्होंने शुक्ल जी द्वारा अधूरे छोड़े गए कार्य को पूरा किया। हिन्दी समीक्षा को उन्होंने एक नई उदार और वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की। डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने लिखा है, "शुक्ल जी ने यदि हिन्दी - साहित्य को उसका इतिहास दिया है, तो द्विवेदी जी ने सचमुच उस साहित्य की भूमिका प्रस्तुत की है और इस तरह उनके अधूरे कार्य को पूरा किया है। वस्तुतः ये दोनों व्यक्तित्व एक-दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वन्दी नहीं।

डॉ. बच्चनसिंह ने आचार्य द्विवेदी की 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' को 'उनके सिद्धांतों की बुनियादी पुस्तक' कहा है। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1940 ई0 में हुआ। इसके एक वर्ष पश्चात् 'कबीर' का प्रकाशन हुआ। 'सूर साहित्य' पहले ही सन् 1934 ई0 में प्रकाशित हो चुकी थी। इन पुस्तकों में सम्पूर्ण हिन्दी संसार का ध्यान आकर्षित किया। 'सूर-साहित्य' में भावुकता का रंग कुछ प्रगाढ़ हो गया है। किन्तु शेष दोनों पुस्तकें द्विवेदी जी के विचारों की परिपक्वता के द्योतक हैं। उनका मानवतावादी दृष्टिकोण तथा ऐतिहासिक पद्धति इनमें उभरकर सामने आई। उन्होंने बताया कि किसी साहित्यकार को व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि आलोचक को अपनी सांस्कृतिक विरासत का पूर्ण ज्ञान हो। यद्यपि 'कबीर' के प्रकाशन से पूर्व डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के संत साहित्य सम्बन्धी कुछ लेख हिन्दी में प्रकाशित हो चुके थे और अंग्रेजी में 'निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयट्री' नामक ग्रन्थ भी छप चुका था, परन्तु अंग्रेजी में होने के कारण वह सर्वजनग्राह्य न था। डॉ. बड़थ्वाल में वह मानवतावदी उदार दृष्टिकोण भी न था, जो द्विवेदी जी ने भारतीय वांग्मय के गहन अध्ययन मनन, युगीन समस्याओं के सूक्ष्म चिन्तन और शांति निकेतन के प्रवास काल में कवीन्द्र - रवीन्द्र तथा क्षितिमोहन सेन के सानिध्य से प्राप्त किया था। इसीलिए द्विवेदी जी का समीक्षक रूप इतना गौरवशाली बना। शांति निकेतन के 'विश्व भारती' जैसे संस्कृत-पीठ का ही प्रभाव है कि वे साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका में रखकर देखने को प्रवृत्त हुए हैं।

आचार्य शुक्ल में उस तटस्थता और उदारता की कमी थी, जो एक समीक्षक के लिए आवश्यक है। शुक्ल जी नैतिकता और लोक मंगल के समर्थन थे और इसीलिए इन भावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि तुलसी पर उनकी श्रद्धा सर्वाधिक थी। निर्गुण धारा के कवियों पर उन्होंने उदारतापूर्वक विचार नहीं किया। हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सिद्धों, नाथों, और जैनों की कृतियों को उन्होंने साम्प्रदायिक धार्मिक उपदेश तथा शुष्क ज्ञान कहकर उपेक्षित बना दिया। इन उपेक्षित अंशों का द्विवेदी जी सहृदयतापूर्वक संस्पर्श किया। द्विवेदी जी ने कहा कि धार्मिक रचनाएँ साहित्य की परिधि से निर्वासित नहीं की जा सकतीं, क्योंकि उनमें भी काव्यत्व रहता है। यदि धार्मिकता के नाम पर ही किसी कृति को साहित्य से बहिष्कृत किया जाएगा, तो तुलसी का 'रामचरितमानस' और जायसी का 'पद्मावत' भी धार्मिक कृतियाँ होने के कारण साहित्य-सीमा में प्रविष्ट न हो सकेंगे। इस मत को प्रस्तुत करते हुए शुक्ल जी द्वारा उपेक्षित हिन्दी साहित्य के इतिहास के अंश पर द्विवेदी जी ने सहानुभूति के साथ विचार किया। उनकी यह विशेषता एक सफल समीक्षक होने का प्रमाण है। इसी आधार पर उन्होंने कबीर के काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन किया, सिद्धों, नाथों और जैनों के साहित्य का विवेचन किया। उनके 'हिन्दी साहित्य की भूमिका', 'कबीर', 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' 'नाथ सम्प्रदाय', 'मध्यकालीन धर्म-साधना' आदि ग्रन्थ इस दृष्टि से देखे जा सकते हैं।

कबीर का मूल्यांकन द्विवेदी जी ने अनेक नई दृष्टियों से किया। उन्होंने बताया कि कबीर का महत्व सबसे अधिक इस बात से है, क्योंकि उन्होंने मनुष्य मनुष्य के बीच रागात्मक सम्बन्ध का उद्घाटन किया है। कबीर के भाषागत वैशिष्ट्य पर भी सर्वप्रथम उन्हीं की दृष्टि गई। वे लिखते हैं- "भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के तानाशाह थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया बन गया तो सीधे- सीधे नहीं तो भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है।"

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य का मर्म मानवतावाद को माना है। उनका कहना है मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, दीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुःख कातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। अतएव स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि मानवतावादी है। उनका मानवतावाद उपनिषदों से प्रभावित है, उसमें मनुष्य- मनुष्य में भेद नहीं माना जाता। इसका प्रतिपक्ष 'साहित्य का मर्म' में बड़े विशद् और वैज्ञानिक रूप में हुआ है। इसी मानवतावाद की अभिव्यक्ति 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' और 'कबीर' में इतिहास का आश्रय लेकर हुई है, तो 'साहित्य का मर्म में विविध ज्ञान- विज्ञान के माध्यम से हुई है। द्विवेदी जी ने बताया है कि 'साहित्य के मर्म तक पहुँचने के लिये समीक्षक को विज्ञान, राजनीति, अर्थनीति आदि सभी से सहायता लेनी ही पड़ेगी। भारत के लिये यह नई बात नहीं है। यहाँ पर काव्यशास्त्र को विभिन्न ज्ञान-विज्ञानों ने आदिकाल से ही प्रभावित और लाभान्वित किया है।

द्विवेदी जी साहित्यकार का लक्ष्य मनुष्य का हित साधन करना मानते हैं और 'कला- कला के लिये' के सिद्धांत के समर्थक नहीं हैं। उनका इतिहासकार रूप उनके समीक्षक रूप में इस प्रकार घुल-मिल गया है कि उन्हें परस्पर पृथक करके अध्ययन करना सम्भव नहीं है। इसीलिए उनके आलोचनात्मक साहित्य को यदि हम दो भागों में बाँटें-

 (1) इतिहास सम्बन्धी 
(2) समीक्षा सम्बन्धी,

 दोनों रूप हमें घुले-मिले दिखाई देंगे। अभी तक हिन्दी साहित्य के भक्तिकाव्य के सम्बन्ध में शुक्ल जी द्वारा निर्दिष्ट मान्यता ही चल रही थी कि मुसलमानों के सामने पराजित होने पर हिन्दू जाति के निराश हृदय के सामने ईश्वर की शरण में जाने के अतिरिक्त कोई उपाय न था, इसीलिए इस साहित्य में भक्ति भावना विद्यमान है। द्विवेदी जी ने हिन्दी के भक्ति - साहित्य को पराजित हिन्दू-जाति की सम्पत्ति नहीं माना। उनका मानना है "अगर इस्लाम नहीं आया होता, तो भी इस साहित्य का रूप बाहर आना वैसा ही होता जैसा आज द्विवेदी जी ने इसे एक स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास का परिणाम बताया है। उन्होंने इसकी जड़ें लोक- चिन्तन में ढूँढ़ी हैं। उनकी यह धारणा पूर्ववर्ती विद्वानों में सर्वथा भिन्न है।

द्विवेदी जी की समीक्षा के क्षेत्र में एक अन्य महत्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने हिन्दी के काव्य रूप के विकास की ओर ध्यान दिया। यह कार्य उनसे पूर्व किसी आलोचकों ने नहीं किया। हिन्दी साहित्य के साथ उन्होंने अन्य प्रान्तों के साहित्य का सम्बन्ध जोड़कर काव्य रूपों में तुलनात्मक विवेचन की दिशा में भी कार्य किया है।

द्विवेदी जी की आलोचना शैली के अनेक रूप मिलते हैं।- विवेचनापूर्ण व्याख्यात्मक शैली में उन्होंने जो आलोचनाएँ लिखीं उनमें विषय प्रतिपादन के लिए उद्धरण दिये हैं। अपने गहन अध्ययन द्वारा विषय का समर्थन करने के लिए उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनकी आलोचना-शैली का दूसरा रूप भावात्मक है, जिसमें किसी कवि की विशेषताओं की प्रशंसा की है।

मध्ययुगीन साहित्य और संस्कृति द्विवेदी जी का प्रिय क्षेत्र है। उन्होंने सांस्कृतिक गतिविधि, लोक-जीवन आदि के बीच से साहित्य का परीक्षण करने की जिस वैज्ञानिक पद्धति को जन्म दिया, उसके लिये हिन्दी - समीक्षा उनकी चिर-ऋणी रहेगी। एक आलोचक ने ठीक ही लिखा है कि "ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षा-पद्धति का आदर्श रूप पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचनाओं में प्रस्फुटित हुआ हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book